कहते हैं कि वाराणसी मुक्ति का स्थल है। वहां जाकर सारे पाप धुल जाते हैं। नोटबंदी की वजह से तमाम बातें होने लगीं तो मैं बनारस की तरफ भागा। सुन रखा था की वहां प्रायः सवालों के जवाब मिल जाते हैं ,कम से कम बनारसवाले तो यही मानते हैं। सोचा कि सवालों से मुक्ति पाने का एक तरीका अपनाया जाय। मैं जब बनारस के घाट पर पहुंचा तो मुझे एक विद्वान टाइप के संत दिखे। जब लोगों से उनका नाम पूछा तो पता चला कि उनका नाम है -पंडित सेवा प्रसाद। पता ये भी चला कि विकट विद्वान हैं। मैंने आव देखा न ताव पहुंचते ही सवाल दाग दिया -गुरु जी !मोदी जी की नोटबंदी से देश परेशान है। एक दिन में सिर्फ २००० मिलने हैं और वो भी मिल नहीं पा रहे हैं। जनता दुखी है।" मेरा सवाल सुनते ही पंडित जी ने बड़े प्यार से, सहलाती हुयी नज़रों से घूरते हुए पूछा-कभी महाभारत पढ़ा है ?सकुचाते हुए बोलना पड़ा -जी थोड़ा बहुत। पंडित जी मुस्कराये,कहा कोई बात नहीं। नाम सुना है ,वही बहुत है। मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा कि नोटबंदी और महाभारत का क्या संबंद्ध ?जवाब आया -बेटा तुम्हे नहीं पता। महाभारत में सब कुछ है। मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया कि क्या उस समय भी नोटबंदी का कोई वाकया हुआ था?पंडित जी ने गम्भीरतापूर्वक कहना शुरू किया --बात तब की है जब कौरव और पांडवों के बीच युद्ध ख़त्म हुआ तो देश आर्थिक रूप से कंगाल हो चुका था और नए महाराज युधिष्ठिर को संदेह था की हस्तिनापुर में बड़ी मात्रा में काला धन है। काफी सोच विचार के बाद उन्होंने नोटबंदी का फैसला लिया। तमाम उपायों के बाद भी उन्हें वो सारी समस्याएं झेलनी पड़ीं जिनका तुम आज ज़िक्र कर रहे हो। जब जनता त्राहि त्राहि करने लगी तो विदुरजी ने प्रश्न उठाया। जनता मर रही है ,खाने को कुछ नहीं है ,लोगों को शादियां करनी हैं ,किसान के पास बीज के भी पैसे नहीं हैं। व्यापार नष्ट हो रहा है। विदुर के प्रश्न के जवाब में भीम और अन्य मंत्री बोल पड़े कि -२००० निकाल सकते हैं ,और प्रजा को भी देश के लिए इतना कष्ट तो सहन करना होगा। विदुर फिर भी नहीं माने तब विदुर को शांत करने के लिए महाराज ने विदुर को समझाया कि प्रजा के दुःख का कारण संतोष की कमी है।संतोष की महिमा का वर्णन करते हुए राजा ने कहा ----- " संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम। तुष्टेर्न किंचित परतः सा सम्यक प्रतितिष्ठति। " अर्थात मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि भली भांति मन में प्रतिष्ठित हो जाये तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। विदुर ने दुखित होकर पूछा कि महाराज जनता संतोषी ही है लेकिन उसकी आधारभूत जरूरतें हैं ,उनका वो क्या करे ?खाना न खाये ,दवा न कराये ,बच्चो की शादी ना करे ,खेती न करे ?मानव अपनी जरूरतों का क्या करे ?राजा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया --- यदा संहरते कामान कूर्मोङ्गानीव सर्वशः। तदात्मज्योतिरचिरात स्वात्मन्येव प्रसीदति। । अर्थात जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है ,उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है ,उस समय तुरंत ही ज्योतिः स्वरुप आत्मा उसके अंतःकरण में प्रकाशित हो जाती है। पंडित जी ने कथा अचानक रोक दी। मैंने जिज्ञासावश पूछा -क्या हुआ गुरुदेव ?कहानी क्यों रोक दी ?क्या राजा के कथन से विदुर सहमत हो गए ?पंडित जी ने कहा कि इसका कहीं उल्लेख तो नहीं मिलता कि वो सहमत हुए या नहीं ,किन्तु ऐसा सुनने में आया कि वो खुद को कोसते हुए भटकने लगे कि मैंने इसका समर्थन क्यों किया था।मैंने हिम्मत करके पूछ लिया कि महाराज आप आज वाली नोटबंदी पर क्या सोचते हैं ?पंडित जी बिफर पड़े,लगा शाप दे देंगे। बोले -एकदम झंडू हो क्या ?बताया तो कि अपनी जरूरतें समेटो ,मन में संतोष लाओ। समझ में नहीं आया क्या ? बोलते बोलते हांफने लगे और अचानक दुखी हो गए। डरते हुए पूछा -क्या हुआ महाराज ?बुरा लग गया ?माफ़ कर दीजिये। पंडित जी ने कहा नहीं बेटा बुरा नहीं लगा। बस इस बात से दुखी हूँ कि एक यज्ञ कराके लौटा हूँ ,दक्षिणा में सालों ने पुराने ५०० और १००० के नोट दे दिए। मैंने पूछा -क्या आप भी विदुर की तरह खुद को कोसते हैं. ... ?पंडित जी ने कहा कुछ नहीं बस अपलक शून्य में देखते रहे। मैंने सोचा काश .... ........
The author is a teacher by Profession and has his views on day to day changing Political scenario.
Tuesday, December 13, 2016
Sunday, December 4, 2016
Credit And Responsibility : श्रेय और उत्तरदायित्व
हम सब एक ऐसे दौर से ग़ुज़र रहे हैं, जहाँ श्रेय लेने की होड़ लगी है, किन्तु उत्तरदायित्व लेने को कोई तैयार नहीं है। जो कुछ भी अच्छा है,वो हमारी वजह से है; और जो कुछ भी बुरा है उसके लिए कोई और जिम्मेदार है। इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या हो सकती है। जब तक इंसान अपनी गलती मानेगा नहीं, तब तक उसके अंदर सुधार की क्या सम्भावना रह जाती है ? धर्मवीर भारती के काव्य नाटक 'अंधा युग' में विदुर कृष्ण से कहते हैं -"आस्था तुम लेते हो /तो अनास्था लेगा कौन ?" अगर अच्छे के लिए तुम श्रेय लेते हो तो बुरे का उत्तरदायित्व कौन ग्रहण करेगा ? यह प्रवृत्ति इन दिनों इतनी बढ़ गयी है कि ऐसा लगता है कि यही मानव स्वभाव है। इस मानवीय स्वभाव / दुर्बलता का सबसे ज्यादा फायदा राजनीतिज्ञों ने उठाया है। फसल अच्छी हुयी,अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुयी या कोई भी विकास हुआ तो सरकार या दल श्रेय लेने आगे आ जाते हैं ;किन्तु जब फसल बर्बाद होती है या अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ जाती है तो इसके लिए जिम्मेदारी सरकार नहीं लेती (चाहे वह किसी की भी सरकार हो) ,पता नहीं वह कौन सा जादुई नुस्खा है जो सफलताओं को तो शासक वर्ग के खाते में डाल देता है जबकि असफलताओं को किसी और खाते में। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जब कहती है कि देश में जो भी विकास हुआ है उसके बड़े हिस्से के लिए उसकी सरकारों को श्रेय मिलना चाहिए तो इसमें कुछ गलत नहीं है ,किन्तु यह भी मानना पड़ेगा कि इस दौरान जो गड़बड़ियां हुईं उसके बड़े हिस्से के लिए भी कांग्रेस ही जिम्मेदार है। देश एकजुट हुआ,अगर इसकी सफलता का श्रेय कांग्रेस लेती है तो जो विघटनकारी तत्त्व देश में फल फूले, इसकी जिम्मेदारी भी उसे लेनी पड़ेगी। भारत में विकास के बड़े हिस्से का श्रेय अगर कांग्रेस लेती है तो जो शेष पिछड़ापन है, उसकी जिम्मेदारी भी उसे लेनी होगी। श्रेय और उत्तरदायित्व का यह समीकरण सिर्फ एक या दो दलों पर ही लागू नहीं होता।बल्कि हर दल और हर व्यक्ति पर लागू होता है। अगर मोदी जी गुजरात के विकास के लिए और एक दशक तक गुजरात के किसी ज़िले में कर्फ्यू न लगने का श्रेय लेते हैं तो उन्हें गोधरा और गुजरात दंगो का भी उत्तरदायित्व लेना होगा। वैसे तो नोटबंदी से सरकार अपना इच्छित परिणाम प्राप्त करती है या नहीं ,यह भविष्य के अंतर में है किन्तु अगर इसकी सफलता का श्रेय लेने का मन बनेगा तो उन करोडो लोगों के तकलीफों का उत्तरदायित्व भी सरकार को लेना होगा। राजनीतिक दलों /व्यक्तियों /साधारण मनुष्यों को चाहिए की अपनी गलतियों से न केवल सीखने की कोशिश करे बल्कि उसे स्वीकार करने का साहस भी करे। सत्य कड़वा हो सकता है किन्तु सत्य को स्वीकार न करने का परिणाम भी कड़वा ही होगा।
Friday, December 2, 2016
Free Floating Intellectuals:मुक्त विचरणशील बुद्धिजीवी
1920 के दशक में Karl Mannheim ने मुक्त विचरणशील बुद्धिजीवी वर्ग की अवधारणा दी थी। अर्थात ऐसा बुद्धिजीवी जो किसी विशेष विचारधारा से बंधा हुआ न हो ,उस समय भी ये एक कठिन काम था। 95 साल बाद तो ये और कठिन लगता है। आज के समय तो आप या तो इधर हैं या उधर;और अगर आप नहीं हैं तो अपनी राय देकर देखिये फिर आपको किसी न किसी तरफ कर दिया जायेगा। अगर आप नोटबंदी के समर्थक है तो आप मोदी भक्त हैं और अगर आप नोटबंदी के विरोध में है तो आप कालेधन के दलाल या देशद्रोही हैं। ऐसा लगता है कि मध्य का कोई रास्ता ही नहीं है। मानता हूँ की राजनीतिक दलों के नेताओं की मजबूरी है किन्तु आम आदमी या बुद्धिजीवियों की क्या मजबूरी है ?
लोकतंत्र के लिए विरोध और समर्थन दोनों की जरूरत है किन्तु अंधभक्ति या अंधविरोध को कितना उचित कहा जा सकता है। मीडिया जितनी लाचार या चापलूस या दलों से सम्बद्ध आज दिख रही है उतनी पता नहीं पहले कब दिखी थी। आप कोई भी चैनेल देखिये आपको अनुभव हो ही जायेगा कि ये चैनेल किस दल का समर्थक है। आप चैनलों पर बुद्धिजीवियों को सुनिये पता लग जाता है (ज्यादातर मामलों में )कि वे किस दल के समर्थक हैं। सोशल साइट्स पर तो और बवाल मचा है,इतनी झूठी ख़बरें हैं की दिमाग भन्ना जाये। हर कोई विशेषज्ञ है (हर विषय का ) , कहीं जाना कठिन हो गया है। एक ऑटो वाले ने एक दिन काले धन पर इतनी रोशनी डाली की आँखें चुंधियां गयीं। ऐसा लगता है कि कोई न सुनने को तैयार है न सीखने को। बस अपनी सुनाने में लगे हैं सब।
किसी पक्ष से जुड़े होने में कोई खराबी नहीं और नहीं जुड़े होने में कोई विशेष बात नही परन्तु जबरन किसी को किसी खाने में धकेल देना ठीक नहीं। किसी विषय पर अपनी बात कहते समय क्या ये जरूरी नहीं की निष्पक्ष रहा जाये। और अगर आपको लगता है की आप निष्पक्ष हैं तो अपने पिछले पोस्ट पढ़िए। आप पाएंगे (ज्यादातर )कि आप प्रायः पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहे हैं। या तो प्रशंसा में या विरोध में। कोई भी आदमी केवल अच्छा या बुरा नहीं हो सकता। क्या आपको किसी खास नेता की हर बात अच्छी या बुरी लगती है ?तो आपको अपने अंदर झांकने की जरूरत है। जब कोई बुद्धिजीवी किसी राजनीतिक दल से जुड़ जाता है तो उसे अपने दल की भाषा बोलनी पड़ती है। हर दल में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। ऐसी हालत में जनता उस बुद्धिजीवी पर कैसे भरोसा करे ?क्यों न ये माने कि वो अपने दल का पक्ष रख रहा है न की सच। सच्चाई अतिवाद में नहीं रहती ,वो केवल काली या सफ़ेद नहीं होती। वो इस पार या उस पार नहीं रहती ,वो कहीं बीच में रहती है। किसी दल या विचारधारा से जुड़े लोगों को बुरा नहीं कह रहा, लेकिन एक बात तय है कि परिवर्तन मुक्त विचरणशील बुद्धिजीवी ही लाता है। इसलिए एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है की फतवेबाजी बंद करिये। कोशिश करिये फैसलों के गुण दोष परखने की ,पूर्वाग्रह से मुक्त होकर।
Wednesday, November 30, 2016
WAR AND DEFEAT : युद्ध और पराजय
युद्ध की आवश्यकता पर तमाम बातें कही जा सकती हैं,इसके पक्ष या विपक्ष में भी तमाम तर्क दिए जा सकते हैं;किन्तु प्रत्येक युद्ध के बाद यही साबित होता है कि युद्ध एक अनावश्यक दुर्घटना है। हर युद्ध के बाद विजेता भी सुख का अनुभव नहीं कर पाता बल्कि दुःख का ही अनुभव करता है। तो क्या विजेता अपनी विजय से दुखी होता है ?महाभारत में युद्ध के बाद युधिष्ठिर भी बेतरह दुखी होते हैं,राज्य के परित्याग की बात करते हैं। वे युद्ध की असलियत को सामने रखते हैं। ..
न सकामा वयं ते च न चास्माभिर्न तैर्जितम
अर्थात इस युद्ध से न तो हमारी कामना सफल हुयी और न वे कौरव ही सफलमनोरथ हुए। न हमारी जीत हुयी न उनकी।
इसके आगे वे कहते हैं --
हत्वा नो विगतो मन्यु : शोको मां रूँधयत्ययं
अर्थात शत्रुओं को मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया ,परन्तु यह शोक मुझे निरंतर घेरे रहता है।
कृष्ण जी को भी पता था की युद्ध में कोई विजयी नहीं होता ,इसी कारण वे दुर्योधन को समझाते हैं। अपमानित किये जाते हैं तब भी अंतिम समय तक युद्ध टालना चाहते हैं। अर्जुन को भी मोह होता है --कैसे मारें अपने ही बंधुओं को ?जो समझ सकते हैं , वो दुविधा में होते हैं। मूर्खों को कोई दुविधा नहीं होती। उनको पता होता है कि वे जो सोच रहे हैं वही सत्य है।
चाणक्य के शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य अंत में जैन धर्म ग्रहण कर अहिंसा की शरण लेते है। अशोक को भी कलिंग विजय के बाद शोक होता है। सोचता है क्यों मार दिया इतनों को ?केवल राज्य के लिए ?युधिष्ठिर और अशोक दोनों शोकग्रस्त होते हैं। इतनों की हत्या की,केवल राज्य के लिए ?उन्हें पता है कि जब आप किसी की हत्या करते हैं तो इससे यह सिद्ध होता है कि आप उसके जीवित रहते जीत नहीं सकते। प्रतिस्पर्धी की हत्या आपके पराजय की उद्घोषणा है ;और संभवतः यही है आपके दुखित होने का कारण।
युद्ध के बाद वही रो सकता है जिसे ज्ञान है ,भले ही वह विजेता हो या पराजित। वो विजेता नहीं रो सकता जो मूर्ख है। उसे अपनी पराजय का ज्ञान ही नहीं होता। वो नहीं जानता कि हत्या करना विजय नहीं पराजय है। जो है नहीं उससे आप लड़ नहीं सकते ;और ज़ाहिर तौर पर जीत भी नहीं सकते। तो आप हार के डर से हत्या करते हैं। आप हार की वजह को ही समाप्त कर देते हैं। हर युद्ध बताता है ;अपनी निरर्थकता और पराजयबोध।
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