Monday, January 21, 2013

अकेलापन

जानता हूँ -तुम्हारे साथ ही ;
ये दुनिया भी मुझे बहुत चाहती है,
अगर ऐसा न होता तो 
अपनी हर जरुरत में,
अपनी हर मुसीबत में,
मै  अकेला क्यूँ होता ......

Sunday, January 6, 2013

अप्रासंगिक चाणक्य

                                                                                जब भी प्रयोग करता हूँ ,
अपनी बुद्धि का
पूरी निष्ठां के साथ और
बना देता हूँ -एक चन्द्रगुप्त ;
फिर हो जाता हूँ -एकाकी।

जब भी मनाया जाता है ,
विजयोत्सव ,
मेरे विरोध के बावजूद
जन-मन-धन से टूटे राज्य में ,
तब जुटती है-एक बड़ी भीड़ ;
भाट और विदूषकों की ,
और फेंका जाता हूँ - मै ;
हाशिये पर ,
फूस  की निर्जन कुटी में -एकाकी।

यह उपेक्षा और एकाकीपन
पुरस्कार है ,
नन्द के साम्राज्य विनाश का।

जानता हूँ-बदलेगा चन्द्रगुप्त भी ,
फिर बनेगा एक दूसरा नन्द ;
और व्यथित चाणक्य।
इतिहास दुहरायेगा बार-बार
लगातार ........
 खुद को
और हर बार
 फेंका जायेगा चाणक्य
हाशिये पर,
क्योंकि ;
विजयोपरांत
हर बार वह हो जायेगा -
अप्रासंगिक।

Friday, January 4, 2013

तुम....

                                                                          
जानता हूँ
जब तुम चली जाओगी,
खाली न रहेगी
वो जगह :
कोई न कोई भर ही देगा
तुम  जैसा :
पर तुम ........

Tuesday, January 1, 2013

दो हिस्सों में प्रेम


                                                     
तुम्हारी  सुराहीदार गर्दन
कँवल सरीखे होंठ
और मीठी आवाज़ ,
बलखाती पतली कमर
और
विश्व का सारा आकर्षण समेटे तुम ।
तुम्हे सम्पूर्णता में चाहकर भी
आज खड़ा हूँ ;
परित्यक्त ,अभिशप्त ,अपराधी सा ,
क्योंकि ;
प्रेम के सैद्धांतिक पैरोकारों ने
अपनी कलम की तलवार से
काट डाला है ;
तुम्हारा शरीर और
मेरा प्रेम ,
दो हिस्सों में ।
तुम्हारे लिए मेरी आँखों में ;
छलकता मादक प्रेम
उनके लिए है -
वासना के सर्प ।
प्रेम के
शरीरी-अशरीरी विभाजन ने
प्रेम की परिभाषा को काटकर
बना दिया है -मुझे
मेरी ही नज़र में
अपराधी सा ।

सिलसिला

                                                                
इससे पहले कि
मेरी ज़िन्दगी ,तुम्हारे लिए
सास बहु का सीरियल बने
याकि ;
भ्रष्टाचार से लड़ने का सरकारी तंत्र ,
और तुम ;
जिसने हर परिभाषा को
गढ़ा है
बेहयाई से -अपने पक्ष में
और इससे पहले कि
हम :असह्य हो जाएँ
एक दूजे के लिए ;
सोचता हूँ
क्यों न काटकर अलग कर लूं
अपने  को
इस पूरे सिलसिले से ।

अपराधबोध

तुम्हारी आँखों में
अपने प्रेम क़ी परछाई ढूँढने क़ी कोशिश
और उनकी नमी में
पा लेता हूँ
अपना
अपराधबोध ।

तुम्हारे लिए

                                                               
हवा में फैले
डिजेल - पेट्रोल की गंध
 के बीच,
तुम्हारी ओढ़नी की खुशबू 
महसूसने की कोशिश 
और ;
तुम्हारे बगल में लेटकर 
तुम्हारी आँखों में खिलते 
फूलों के बगीचे में 
ज़ज्ब होने की कोशिश करता हूँ 
तब ;
बेतरतीब बढ़ जाता है 
मेरा खुरदुरापन और :
अपराधबोध ।
हाँ !ये खरा सौदा तो नहीं 
मगर ;
अपनी वीरान और बारिश से भरी  
आंखों का आमंत्रण ही दे सकता हूँ 
तुम्हारे खिलते फूलों के 
बगीचे के बदले ।