Sunday, January 6, 2013

अप्रासंगिक चाणक्य

                                                                                जब भी प्रयोग करता हूँ ,
अपनी बुद्धि का
पूरी निष्ठां के साथ और
बना देता हूँ -एक चन्द्रगुप्त ;
फिर हो जाता हूँ -एकाकी।

जब भी मनाया जाता है ,
विजयोत्सव ,
मेरे विरोध के बावजूद
जन-मन-धन से टूटे राज्य में ,
तब जुटती है-एक बड़ी भीड़ ;
भाट और विदूषकों की ,
और फेंका जाता हूँ - मै ;
हाशिये पर ,
फूस  की निर्जन कुटी में -एकाकी।

यह उपेक्षा और एकाकीपन
पुरस्कार है ,
नन्द के साम्राज्य विनाश का।

जानता हूँ-बदलेगा चन्द्रगुप्त भी ,
फिर बनेगा एक दूसरा नन्द ;
और व्यथित चाणक्य।
इतिहास दुहरायेगा बार-बार
लगातार ........
 खुद को
और हर बार
 फेंका जायेगा चाणक्य
हाशिये पर,
क्योंकि ;
विजयोपरांत
हर बार वह हो जायेगा -
अप्रासंगिक।

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