1920 के दशक में Karl Mannheim ने मुक्त विचरणशील बुद्धिजीवी वर्ग की अवधारणा दी थी। अर्थात ऐसा बुद्धिजीवी जो किसी विशेष विचारधारा से बंधा हुआ न हो ,उस समय भी ये एक कठिन काम था। 95 साल बाद तो ये और कठिन लगता है। आज के समय तो आप या तो इधर हैं या उधर;और अगर आप नहीं हैं तो अपनी राय देकर देखिये फिर आपको किसी न किसी तरफ कर दिया जायेगा। अगर आप नोटबंदी के समर्थक है तो आप मोदी भक्त हैं और अगर आप नोटबंदी के विरोध में है तो आप कालेधन के दलाल या देशद्रोही हैं। ऐसा लगता है कि मध्य का कोई रास्ता ही नहीं है। मानता हूँ की राजनीतिक दलों के नेताओं की मजबूरी है किन्तु आम आदमी या बुद्धिजीवियों की क्या मजबूरी है ?
लोकतंत्र के लिए विरोध और समर्थन दोनों की जरूरत है किन्तु अंधभक्ति या अंधविरोध को कितना उचित कहा जा सकता है। मीडिया जितनी लाचार या चापलूस या दलों से सम्बद्ध आज दिख रही है उतनी पता नहीं पहले कब दिखी थी। आप कोई भी चैनेल देखिये आपको अनुभव हो ही जायेगा कि ये चैनेल किस दल का समर्थक है। आप चैनलों पर बुद्धिजीवियों को सुनिये पता लग जाता है (ज्यादातर मामलों में )कि वे किस दल के समर्थक हैं। सोशल साइट्स पर तो और बवाल मचा है,इतनी झूठी ख़बरें हैं की दिमाग भन्ना जाये। हर कोई विशेषज्ञ है (हर विषय का ) , कहीं जाना कठिन हो गया है। एक ऑटो वाले ने एक दिन काले धन पर इतनी रोशनी डाली की आँखें चुंधियां गयीं। ऐसा लगता है कि कोई न सुनने को तैयार है न सीखने को। बस अपनी सुनाने में लगे हैं सब।
किसी पक्ष से जुड़े होने में कोई खराबी नहीं और नहीं जुड़े होने में कोई विशेष बात नही परन्तु जबरन किसी को किसी खाने में धकेल देना ठीक नहीं। किसी विषय पर अपनी बात कहते समय क्या ये जरूरी नहीं की निष्पक्ष रहा जाये। और अगर आपको लगता है की आप निष्पक्ष हैं तो अपने पिछले पोस्ट पढ़िए। आप पाएंगे (ज्यादातर )कि आप प्रायः पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहे हैं। या तो प्रशंसा में या विरोध में। कोई भी आदमी केवल अच्छा या बुरा नहीं हो सकता। क्या आपको किसी खास नेता की हर बात अच्छी या बुरी लगती है ?तो आपको अपने अंदर झांकने की जरूरत है। जब कोई बुद्धिजीवी किसी राजनीतिक दल से जुड़ जाता है तो उसे अपने दल की भाषा बोलनी पड़ती है। हर दल में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। ऐसी हालत में जनता उस बुद्धिजीवी पर कैसे भरोसा करे ?क्यों न ये माने कि वो अपने दल का पक्ष रख रहा है न की सच। सच्चाई अतिवाद में नहीं रहती ,वो केवल काली या सफ़ेद नहीं होती। वो इस पार या उस पार नहीं रहती ,वो कहीं बीच में रहती है। किसी दल या विचारधारा से जुड़े लोगों को बुरा नहीं कह रहा, लेकिन एक बात तय है कि परिवर्तन मुक्त विचरणशील बुद्धिजीवी ही लाता है। इसलिए एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है की फतवेबाजी बंद करिये। कोशिश करिये फैसलों के गुण दोष परखने की ,पूर्वाग्रह से मुक्त होकर।
Nice thinking sir ji
ReplyDeleteFantastic reality of indian society.
ReplyDeleteVery deep thought.
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