अनुच्छेद 13(2) " राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। "
अनुच्छेद 368 - "संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया"
सवाल ये उठा कि अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए संशोधन को अनुच्छेद 13(2) में लिखित 'विधि' माना जाये या नहीं। इस बात को समझने के लिए कुछ ऐतिहासिक मुकदमों की चर्चा ज़रूरी है।
1 - शंकरी प्रसाद बनाम भारत राज्य,1951
2 - सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य,1964
3 - गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,1967
4 - केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य,1973
5 - मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ,1980
1 - शंकरी प्रसाद बनाम भारत राज्य,1951
प्रथम संविधान संशोधन के विरुद्ध दायर किया गया पहला मुकदमा जिसमें संसद के मूलाधिकारों में परिवर्तन की शक्ति को चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रार्थी की प्रार्थना खारिज़ कर दी। अपने निर्णय में न्यायालय ने कहा कि -संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13(2) में उल्लिखित विधि नहीं माना जा सकता। अनुच्छेद 13(2) का लक्ष्य साधारण कानूनों व कार्यकारिणी के द्वारा दिए जाने वाले आदेशों के खिलाफ नागरिकों के मूल अधिकारों को संरक्षण प्रदान करना था। अतः सांविधानिक संशोधन को अनुच्छेद 13(2) के 'विधि' शब्द के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता।
2 - सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य,1964
यह मुकदमा 17 वें संविधान संशोधन के ख़िलाफ़ था। न्यायालय ने कहा - अनुच्छेद 368 का शीर्षक 'संविधान का संशोधन' है। @*यह याद रखने की बात है कि - संविधान(24 वां संशोधन ) अधिनियम,1971 से पहले अनुच्छेद 368 का शीर्षक था - संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया। जो 24 वें संशोधन के बाद हुआ - संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया। *@ भाग 3 (मूल अधिकार) भी संविधान का भाग है। यह कहीं नहीं लिखा है कि संसद भाग 3 में संशोधन नहीं कर सकती,यहाँ तक कि अनुच्छेद 368 के परन्तुक में भी नहीं।
संविधान निर्माता अगर भाग 3 में संशोधन की शक्ति संसद को नहीं देना चाहते तो वो भाग 3 को अनुच्छेद 4(2) की तरह अनुच्छेद 368 से निकाल सकते थे।
3 - गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,1967
इस मुकदमें में कहा गया कि प्रथम,चतुर्थ और सत्रहवां संशोधन उस सीमा तक असंवैधानिक है,जहाँ तक वह मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है। अतः पंजाब लैंड टैन्योर एक्ट,1953 को अनुच्छेद 14 व 19 के विरुद्ध होने के कारण अवैधानिक घोषित किया जाय।
सरकार की तरफ से यह तर्क दिया गया कि चूँकि संविधान के 17 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31(1) का संशोधन करके उपर्युक्त अधिनियम को 9 वीं सूची में शामिल कर लिया गया है और यह व्यवस्था दी गयी है कि उस सूची में दिए गए कानून की वैधता को मूल अधिकारों की कसौटी पर ना जांचा जाय।
अदालत ने माना कि पहला, चौथा और सत्रहवां संशोधन मूल अधिकारों के क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं किन्तु शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह मामले में वैध हैं। न्यायालय ने गोलकनाथ केस को तो ख़ारिज़ कर दिया किन्तु 'भविष्य प्रभावी प्रत्यादेश सिद्धांत '(Doctrine of Prospective Overruling) के अनुसार घोषित किया कि निर्णय भविष्यलक्षी होगा।
अदालत ने निर्णय दिया कि - इस मुक़दमे के निर्णय की तारीख के बाद से भारतीय संसद को यह अधिकार न होगा कि वह भाग 3 में कोई संशोधन करे,जिसका लक्ष्य इन अधिकारों को छिनना या कटौती करना हो।
न्यायालय के अनुसार -
1 - संसद को संविधान में संशाधन की शक्ति अनुच्छेद 245,246 व 248 से प्राप्त होती है,और यह कहना गलत है कि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 368 में संविधान में 'संशोधन की प्रक्रिया' का वर्णन है।
2 - हर सांविधानिक संशोधन एक कानून होता है। अतः यह अनुच्छेद 13 (2) की विधि की परिभाषा के अंतर्गत आएगा।
3 - मूल अधिकार संविधान की प्रस्तावना में निहित आदर्शों का ही विस्तृत रूप है और वह संसद की पहुँच से बाहर है।
4 - संविधान में स्वयं उन परिस्थितियों का वर्णन है जब मूल अधिकारों पर प्रतिबन्ध होता है।
5 - जनता अगर मूल अधिकारों में संशोधन की मांग करती है तो संसद को अनुच्छेद 245,248 और संघ सूची की 97 वीं प्रविष्टि में दी गयी शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक संविधान निर्मात्री सभा बुलानी चाहिए या जनमत संग्रह कराना चाहिए।
गोलकनाथ मामले में दिया गया निर्णय संसद की शक्तियों पर कुठाराघात था,इस निर्णय के खंडन हेतु संविधान में 24 वां संशोधन(1971) किया गया।
24 वां संविधान संशोधन,1971
1 - अनुच्छेद 13 में उपधारा (4)जोड़ी गयी। जिसमें कहा गया कि - यह अनुच्छेद, संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 में लिखित 'विधि' की परिधि से बाहर रखता है।
2 - अनुच्छेद 368 का शीर्षक बदलकर 'संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया' कर दिया गया।
3 - अनुच्छेद 368 में नया खण्ड जोड़ा गया और कहा गया कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।
4-राष्ट्रपति किसी भी संविधान संशोधन विधेयक को स्वीकृति देने से इंकार नहीं कर सकता। (अनुच्छेद 74(1))
24 वें संशोधन के बाद संसद को संविधान संशोधन की असीमित शक्ति प्राप्त हो गयी। संसद ने 25 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 में एक नयी धारा (ग)जोड़ी। इसमें कहा गया कि - अनुच्छेद 39 को कार्यान्वित करने के लिए ,अगर संसद कोई कानून बनाती है तो ऐसे कानून को किसी न्यायालय में अनुच्छेद 14, 19 और 31 से असंगत होने के कारण ,चुनौती नहीं दी जा सकती।
4 - केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य,1973
1 - इस मुकदमें में 24 वें ,25 वें और 29 वें संशोधनों को मूल अधिकारों के हनन के आधार पर चुनौती दी गयी।
2 - सर्वोच्च न्यायालय ने 7-6 से निर्णय दिया कि - संसद मूल अधिकारों में संशोधन का अधिकार रखती है।
3 - अतः 24 वां ,25 वां और 29 वां संशोधन वैध है।
4 - सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर 'अन्तर्निहित सीमा 'की अवधारणा दी।
5 - न्यायालय ने कहा -संसद मूल अधिकारों में ऐसा कोई भी संशोधन नहीं कर सकती ,जिससे संविधान के मूल ढांचे या बुनियादी संरचना को क्षति पहुंचती हो।
6 - संसद, संविधान के बुनियादी ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती।
7 - संशोधन के नाम पर ,संविधान को नष्ट नहीं किया जा सकता।
बुनियादी संरचना - इसमें कई बातें शामिल हैं।
न्यायमूर्ति सीकरी के अनुसार बुनियादी संरचना में शामिल है -
1 - संविधान की सर्वोच्चता
2 - गणतंत्रीय व लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली
3 - संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप
4 - शक्तियों का पृथक्करण
5 - संविधान का संघीय स्वरुप
न्यायमूर्ति शेलत और ग्रोवर ने देश की संप्रभुता ,भाग 3 और भाग 4 को भी बुनियादी संरचना का हिस्सा माना।
न्यायमूर्ति हेगड़े और मुखर्जी ने संविधान की प्रस्तावना को ही संविधान का मूल सिद्धांत माना।
(जिन 6 न्यायधीशों ने विपक्ष में मत दिया ,उनका कहना था कि - संविधान में ऐसा कोई भाग नहीं है जिसका परिवर्तन ना किया जा सके। अस्तु 'अंतर्निहित सीमा का सिद्धांत ' ,संसद के संविधान संशोधन की शक्ति पर नकारात्मक प्रतिबन्ध है। )
42 वां संविधान संशोधन,1976 - इसके द्वारा संसद ने पुनः असीमित शक्ति प्राप्त करने की कोशिश की। अनुच्छेद 368 में दो नयी धाराएं (4) और (5) जोड़ी गयीं।
अनुच्छेद 368 (4) - इस अनुच्छेद के अधीन संविधान के किसी भी भाग में (42 वें संशोधन 1976 की धारा 55 के आरम्भ से पूर्व या पश्चात )किये गए संशोधन को किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
अनुच्छेद 368 (5) - शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अनुच्छेद के अधीन संविधान के उपबंधों का परिवर्द्धन ,परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन करने के लिए संसद की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बंधन नहीं होगा।
42 वें संशोधन ने संसद को संविधान संशोधन की अपार शक्ति दी तथा न्यायिक पुनर्विलोकन को ख़त्म कर दिया।
5 - मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ,1980
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संशोधन के कुछ खण्डों को ( अनुच्छेद 368 के उपखंड (4) और (5) को ) निरस्त कर दिया। न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में दिए गए संविधान की बुनियादी संरचना के सिद्धांत को प्रतिपादित कर दिया।
वर्तमान समय में कोई भी संशोधन जो संविधान की बुनियादी संरचना के खिलाफ है ,न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जायेगा।
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