Sunday, February 26, 2017

मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्वों के मध्य सम्बन्ध


             मूल अधिकार व्यक्तियों को मिला होता है। मूल अधिकार, राज्य को क्या नहीं करना चाहिए ये बताता है। वहीँ नीति निदेशक तत्त्व,राज्य को क्या करना चाहिए, ये बताता है। नीति निदेशक तत्त्व राज्य के कर्तव्य हैं। नीति निदेशक तत्त्वों के पीछे न्यायिक शक्ति नहीं है बल्कि  नैतिकता व जनमत की शक्ति है।
             मूल अधिकारों व निदेशक सिद्धांतों के आपसी संबंधों के बारे में न्यायपालिका का दृष्टिकोण बदलता रहा है। कुछ मुकदमों से बात को समझने का प्रयत्न किया जा सकता है।

मद्रास राज्य बनाम चंपाकम दुराई राजन
             न्यायालय ने कहा -अनुच्छेद 37 कहता है कि भाग 4 के उपबंध अर्थात नीति निदेशक तत्त्व किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, किन्तु ये शासन में मूलभूत हैं और कानून बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। फिर भी नीति निदेशक तत्त्वो की तुलना में मूल अधिकारों को वरीयता दी जाएगी।मूल अधिकार पवित्र हैं और राज्य के निदेशक तत्त्वों को इसके अनुरूप चलना होगा।
बिहार राज्य बनाम कामेश्वर सिंह
           न्यायालय ने कहा - नीति निदेशक तत्त्व शासन के आधारभूत सिद्धांत हैं। हालाँकि वो वाद योग्य नहीं हैं फिर भी राज्य उनकी अवहेलना नहीं कर सकता।
कुरैशी बनाम बिहार राज्य
           न्यायालय ने संविधान की समन्वित व्याख्या पर ज़ोर दिया। अर्थात इसकी व्याख्या इस तरह होगी - निदेशक सिद्धांतों को राज्य अनिवार्यतः लागू करे लेकिन इस प्रक्रिया में मूल अधिकार समाप्त या सीमित ना हो जाएँ।
             1967 में एक मुकदमें में न्यायमूर्ति सुब्बाराव तथा अन्य ने निर्णय सुनाया कि मूल अधिकारों को सीमित किये बग़ैर निदेशक सिद्धांतों को न्यायसंगत रूप से लागू किया जा सकता है।
चंद्र भवन बोर्डिंग और लॉजिंग बंगलौर बनाम मैसूर राज्य
           सर्वोच्च न्यायालय ने मूल अधिकारों और नीति निदेशक तत्त्वों को एक दूसरे का पूरक बताया तथा इनके मध्य किसी विरोध को अस्वीकार किया।
            नेहरू जी ने चौथे संविधान संशोधन प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा था -मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच  टकराव की सूरत में निदेशक सिद्धांतों को प्रधानता मिलनी चाहिए।
          1969 -70 में कई घटनाएं ऐसी हुयीं जिससे कुछ लोगों को लगा कि मूल अधिकार निदेशक तत्त्वों को लागू करने और समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने में बाधा बन रहे हैं। ये घटनाएं थीं -
1 - 1969 में अध्यादेश द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकारों के उल्लंघन के कारण असंवैधानिक करार देना।
2 - 1970 में अध्यादेश द्वारा भूतपूर्व देशी रियासतों के राजाओं के प्रीवीपर्स को समाप्त करने को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित करना।
          संसद व न्यायपालिका में संघर्ष की हालत हो गयी। सरकार ने कहा कि न्यायालय प्रगतिशील नीतियों को लागू करने में अवरोधक बन रहा है। अस्तु संसद को मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति होनी चाहिए। लेकिन गोलकनाथ मामले में न्यायालय ने मूलाधिकारों में संशोधन पर रोक लगा दी थी।
           1971 में संविधान संशोधन द्वारा संसद की सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयास किया गया और यह व्यवस्था की गयी कि संविधान के किसी भी भाग में संशोधन को किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
            25 वें संशोधन (1971) द्वारा अनुच्छेद 31 में एक नयी उपधारा 31 (ग) जोड़ी गयी। जिसमे कहा गया - कोई भी कानून, जो अनुच्छेद 39 (ख)और (ग) द्वारा निर्धारित नीति निदेशक सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए बनाया गया हो , उसकी संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह अनुच्छेद 14 ,19 और 31 द्वारा दिए गए मूल अधिकार के ख़िलाफ़ है।इस प्रकार 24 वें तथा 25 वें संशोधन द्वारा मूल अधिकार पर निदेशक सिद्धांतों को प्रधानता प्रदान की गयी।
            केशवानंद भारती के मामले में न्यायालय ने संसद की  संविधान संशोधन शक्ति पर बुनियादी संरचना का प्रतिबन्ध लगा दिया। जिसमें मूल ढाँचे को अक्षुण्ण रखने की बात कही गयी। न्यायालय ने 25 वें संशोधन को तो वैध बताया लेकिन 31 (ग) के उस भाग को असंवैधानिक घोषित कर दिया जिसमें यह प्रावधान था कि - संसद द्वारा निदेशक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाया गया कानून न्याय योग्य नहीं होगा।

           1976 में किये गए 42 वें  संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31(ग) में परिवर्तन करके यह व्यवस्था दी कि भाग 4 (नीति निदेशक सिद्धान्त) में शामिल सिद्धांतों में से सभी या किसी सिद्धांत को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से बनाये गए किसी भी कानून की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि वह मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। इस संशोधन द्वारा मूल अधिकारों पर नीति निदेशक सिद्धांतों को पूर्णतः प्रधानता दे दी गयी।
          1980 के मिनर्वा मिल्स मामले में 42 वें संशोधन के उस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया  गया जिसमें सभी नीति निदेशक तत्त्वों को मूल अधिकारों पर प्रधानता दी गयी थी।

          बहरहाल वर्तमान समय में हालत ये है कि अनुच्छेद 39(ख) और (ग) तो मूल अधिकारों से प्रधान हैं,इसके अलावा शेष सारे निदेशक सिद्धांत पूर्व की तरह मूल अधिकारों के अधीन हैं। निष्कर्षतः अनुच्छेद 39 (ख) , (ग) के अलावा  किसी अन्य नीति निदेशक तत्त्व को कार्यान्वित करने के लिए संसद अगर कोई ऐसा कानून बनाती है जो मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है, तो वह अवैधानिक होगा।


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